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दे॒वं वो॑ अ॒द्य स॑वि॒तार॒मेषे॒ भगं॑ च॒ रत्नं॑ वि॒भज॑न्तमा॒योः। आ वां॑ नरा पुरुभुजा ववृत्यां दि॒वेदि॑वे चिदश्विना सखी॒यन् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

devaṁ vo adya savitāram eṣe bhagaṁ ca ratnaṁ vibhajantam āyoḥ | ā vāṁ narā purubhujā vavṛtyāṁ dive-dive cid aśvinā sakhīyan ||

पद पाठ

दे॒वम्। वः॒। अ॒द्य। स॒वि॒तार॑म्। आ। ई॒षे॒। भग॑म्। च॒। रत्न॑म्। वि॒ऽभज॑न्तम्। आ॒योः। आ। वा॒म्। न॒रा॒। पु॒रु॒ऽभु॒जाः। व॒वृ॒त्या॒म्। दि॒वेऽदि॑वे। चि॒त्। अ॒श्वि॒ना॒। स॒खि॒ऽयन् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:49» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले उनचासवें सूक्त का प्रारम्भ किया जाता है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को चाहिये कि परोपकार ही करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! मैं (अद्य) आज (वः) आप लोगों के लिये (आयोः) जीवन का (विभजन्तम्) विभाग करते हुए (देवम्) विद्वान् (सवितारम्) ऐश्वर्यवान् (रत्नम्) रमणीय धन (भगम्) और ऐश्वर्य्य को (च) भी (आ, ईषे) अच्छे प्रकार चाहता हूँ और हे (पुरुभुजा) बहुतों का पालन करते हुए (नरा) अग्रणी (अश्विना) राजा और प्रजाजनो ! (सखीयन्) मित्र के सदृश आचरण करता हुआ मैं (चित्) निश्चित (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वाम्) आप दोनों को (आ, ववृत्याम्) अच्छे प्रकार वर्त्ताऊँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य मित्र होकर दूसरे के लिये सुख की इच्छा करें, वे सदा ही आदर करने योग्य होवें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः परोपकार एव कर्त्तव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! अहमद्य व आयोर्विभजन्तं देवं सवितारं रत्नं भगञ्चेषे। हे पुरुभुजा नरा अश्विना ! सखीयन्नहं चिद्दिवेदिवे वामा ववृत्याम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (देवम्) विद्वांसम् (वः) युष्मदर्थम् (अद्य) (सवितारम्) ऐश्वर्य्यवन्तम् (आ) (ईषे) इच्छामि (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (च) (रत्नम्) रमणीयं धनम् (विभजन्तम्) विभागं कुर्वन्तम् (आयोः) जीवनस्य (आ) (वाम्) युवाम् (नरा) नेतारौ (पुरुभुजा) यौ पुरून् बहून् पालयतस्तौ (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (चित्) (अश्विना) राजप्रजाजनौ (सखीयन्) सखेवाचरन् ॥१॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सखायो भूत्वा परार्थं सुखमिच्छेयुस्ते सदैव माननीया भवेयुः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे मित्र बनून दुसऱ्याचे सुख इच्छितात ती सदैव आदरणीय असतात. ॥ १ ॥